कौन आज़ाद है?

Who is Aazad? We all are Aazad every living being is Aazad at least that’s how god intended us to be or as I would like to believe.Aazad means FREE (referring to freedom), freedom of thought, expression etc. as stated in Indian Constitution and similarly stated as LIBERTY in U.S and other countries. The question is, are we really Aazad? Or is this just another farce to make us happy?Does freedom mean the democracy that we celebrate on 26th of Jan every year or the 15th of Aug every year in India?It’s all chaotic no one exactly knows how to refer themselves to freedom and democracy. No one has ever bothered to know and no one has ever bothered to explain. It’s all there in those big endless volumes in the library. But all that really needed is few basic facts to live our normal day to day life. Now I intend to search for the answer collaboratively. From here on I refer my self to Aazad by name and will search for the real meaning of it. Come join me lets come together and search for the truth.I use BHARATAAZAD.BLOGSPOT.COM as the channel to reach out as and Indian to the Indians. I welcome those from other countries to contribute to our cause.Apart this site has lots of Inspirational Stories , Quotes, Events and Should Know Facts to learn from.

Saturday, September 24, 2011

32 रूपये में कैसे जियेंगे मनमोहन जी?


देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अध्यक्षता के अंतर्गत आधारभूत संरचना और मानव विकास के लिए पुख्ता योजनाये बनाने का दावा करने वाली केन्द्र सरकार की संस्था योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय को बताया है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता है. गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है.


अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष हलफनामे के तौर पेश की है. इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्‍ताक्षर किए हैं. योजना आयोग ने गरीबी रेखा पर नया मापदंड सुझाते हुए कहा है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नै में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता.

योजना आयोग के इस हास्यास्पद परिभाषा पर हो-हल्ला मचना शुरू हो चुका है. रिपोर्ट के मुताबिक, एक दिन में एक आदमी प्रति दिन अगर 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्‍जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्‍य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे रसोई गैस व अन्य ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्‍वस्‍थ्‍य जीवन यापन कर सकता है. साथ में एक व्‍यक्ति अगर 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा. योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवा पर 39.70 रुपये प्रति महीने खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा जायेगा. यदि आप 61.30 रुपये महीनेवार, 9.6 रुपये चप्पल और 28.80 रुपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं कहे जा सकते.

योजना आयोग ने गरीबी की इस नई परिभाषा को तय करते समय 2010-11 के इंडस्ट्रियल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमिटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का लेखा-जोखा दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है. हालांकि, रिपोर्ट में अंत में कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी. ज्ञात हो कि  उच्चतम न्यायालय ने गत 29 मार्च को 2004 के लिए निर्धारित मानदंडों के आधार पर वर्ष 2011 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों का निर्धारण करने पर मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था. कोर्ट ने योजना आयोग की सिफारिशों के आधार पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की आबादी 36 प्रतिशत होने के सरकारी दावों पर सवाल उठाते हुए सरकार से इसका विवरण माँगा था. न्यायाधीशों का कहना था कि 2004 में दिहाड़ी मजदूरी 12 रु. और 17 रु. थी, लेकिन क्या आज यह वास्तविकता है. इतने पैसे में आज क्या होता है? न्यायाधीशों का यह भी कहना था कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन में भी साल में कम से कम दो बार बदलाव होता है, लेकिन गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने में मानदंडों में सात साल में कोई बदलाव नहीं करना आश्चर्य पैदा करने वाला है.

आज देश का गरीब आदमी अपने ही नीतिनिर्धारकों द्वारा तय किये गए 'नव आर्थिक उदारीकरण' की मार झेल रहा है. उसकी जमीन, पानी और रोजी-रोटी राज्य द्वारा कब्जाई जा रही हैं ताकि सब कुछ बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और धन्ना-सेठों की खनन, सेज और दूसरे बड़े-बड़े प्रोजेक्टों, आदि के लिए दी जा सकें. जहाँ एक ओर पिछले 10 सालों में देश के कारपोरेट घरानों को 22 लाख करोड रूपये ( टेक्स आदि में छूट के माध्यम से) दे दिया गया वहीं देश के गरीब आदमी को सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी को खत्म करने की सोची-समझी रणनीति के तहत, योजना आयोग, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में काम कर रहा है. अब ऐसे में उस उच्चतम न्यायालय को उन गरीबों की मदद के लिए आगे आना चाहिए, जिनके अधिकार छीनने की मंसा से योजना आयोग उच्चतम न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है. कोई मनमोहन, मोंटेक अर्थशास्त्रीद्वय, की मंडली से कोई यह पूछे की आपकी झक्क सफेदी जो कि आप सभी के पहनावे में झलकती है और क्रीच टूट जाने पर तत्काल बदल दी जाती है ( दिन में 3 बार) कितना खर्च आता है ? ( संभवतः 23 रूपये से कई गुना ज्यादा होगा) तो आपने यह कैसे मान लिया कि देश का आम आदमी केवल 32 रूपये रोज गुजारा कर लेगा ?

जब देश में वैश्वीकरण की नीतिया लागू की जा रहीं थी उस समय तमाम बुद्धिजीवियों नें जो आशंका व्यक्त की थी कि अगर वैश्वीकरण की नीतियों पर चल कर उदारीकरण और ग्लोबलीकरण को अपनाया गया तो अधिक से अधिक लोग हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे. नतीजतन, एक ऐसी परिस्थिति निर्मित होगी जिसमें बहुत ही थोड़े से लोग अपना अस्तित्व बचा पाएंगे. गरीबों को यह चुनाव करना होगा कि वे फांसी लगाकर मरेंगे या कीटनाशक पीकर अथवा सरकारी सुरक्षाबलों के बंदूक की गोली से. क्या स्थितियां उससे अलग नजर आ रहीं हैं ? राष्ट्रीय आर्थिक संप्रभुता की अधोगति तथा आर्थिक व राजनीतिक प्रक्रिया से दूर रखे जाने की प्रवृत्ति के कारण कई युवा गुमराह होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मजबूरन आतंकवाद और हिंसा तथा अन्य गैरकानूनी रास्ता अपनाने को बाध्य हुए हैं. इन स्थितियों के मद्देनजर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि नक्सलवाद और कुछ नहीं, बल्कि अस्तित्व के संघर्ष में गरीबों के जवाबी प्रतिरोध का पर्याय मात्र है. सवाल यह है कि आखिर योजना आयोग के योजनाकारों के समझ में यह क्यों नहीं आता कि जिस देश में महंगाई दर 10 फीसदी की दर से बढ़ रही हो वहां का आम आदमी 32 रूपये में कैसे गुजारा कर सकता है.

वह वर्ल्ड बैंक जिसके बारे में कहा जाता है कि वह आम आदमी के बारे में नहीं सोचता वह केवल अपने निवेशकों के बारे में सोचता है नें भी गरीबी रेखा के ऊपर की न्यूनतम आय 2 डॉलर यानि 96 रूपये तय किया है और हमारे नीति निर्धारकों की नजर में प्रतिदिन 32 रूपये की आय अर्जित करने वाले गरीबी रेख के निचे नहीं हैं. वैसे तो यूपीए 2 का घोषित लक्ष्य देश के आम आदमी और खासकर देश की गरीब आबादी के लिए ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर उनका जीवन स्तर सुधारना था, लेकिन अब वही यूपीए2 की सरकार देश के चंद पूंजीपतियों व निजी कंपनियों का हितसाधक बन गई है. इसी के मद्देनजर गरीबी निर्धारण के भ्रामक आंकड़े उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया है. कुल मिलाकर उच्चतम न्यायालय को हलफनामे के रूप में दी गई योजना आयोग की रिपोट से यह स्पष्ट होता है कि मौजूदा दौर में बट्टा भारी हो गया है और आदमी हल्का हो गया है. सरकार की इन्ही नीति निर्धारण के मद्देनजर चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार, और आवास की बातें करना बेमानी है देश की गरीब जनता के सामने तो अब दो जून की रोटी का सवाल मुंह बाए खड़ा हो गया है.



visfot.com se liya gaya ank

Saturday, July 16, 2011

इतना फॉरवर्ड करो की एक आन्दोलन बन जाये

 “दर्द होता रहा छटपटाते रहे, आईने॒से सदा चोट खाते रहे, वो वतन बेचकर
मुस्कुराते रहे
हम वतन के लिए॒सिर कटाते रहे”

280 लाख करोड़ का सवाल है ...
भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक के
डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह
भी कहा है कि भारत का लगभग 280
लाख करोड़
रुपये उनके स्विस
बैंक में जमा है. ये रकम
इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट
बिना टैक्स के
बनाया जा सकता
है.
या यूँ कहें कि 60 करोड़
रोजगार के अवसर
दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है
कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4
लेन रोड बनाया
जा सकता है. ऐसा भी कह
सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये
रकम
इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60
साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत
नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं
और नोकरशाहों ने
कैसे देश को

लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है.
इस सिलसिले को
अब रोकना

बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज
करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा. मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे
भ्रस्टाचार ने २८० लाख करोड़ लूटा है (और वो पैसा भी अंग्रेज की बैंक में जमा
रखा है और देस प्रेम की बाते करते ही और कारगिल के शहीदों की तस्वीर पर फूल
रखकर फोटो खिचवाते है ) एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल
६४ सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने
.
करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में है

Tuesday, March 29, 2011

झुण्ड में तो कुत्ते आते हैं, शेर हमेशा अकेला आता है


ग्रुप A से आयी सेमी फाईनल टीम्स :-


१) पाकिस्तान
२) न्यूजीलैंड
३) श्रीलंका

ग्रुप B से आयी सेमी फाईनल टीम्स :-

----- हिंदुस्तान (इंडिया) -----

खास बात : झुण्ड में तो कुत्ते आते हैं, शेर हमेशा अकेला आता है..... ;))

हा हा हा..................


Wednesday, January 12, 2011

280 लाख करोड़ का सवाल है ...

"भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा" 
ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी 
कहा है कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये (280 ,00 ,000 ,000 ,000) उनके
स्विस बैंक में जमा है. ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का 
बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है. या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के 
अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से 
दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है. ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा
सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर 
हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. 


यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है. इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा. मगर आजादी के केवल 65 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा 
है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280
लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार
करोड़  भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है. 


भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा 
हमारे भ्रष्ट  राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है. 


Please Forward This msg to people as much u can.............

Tuesday, January 11, 2011

ऐसा ही युवा विवेकानंद चाहते थे

माँड लुक और वैल्यू 


ये अपनी मर्जी से जीते है, लेकिन जीवन को लेकर सोच पहले की पीढ़ी के मुकाबले ज्यादा सकरात्मक और व्यापक दिखती है| यह पीढ़ी बड़े शांपिंग माँल्स में इठलाती है , ब्रांडेड कपडे पहनती है, प्यार का खुल ka इज़हार करती है, जिन्दगी में पैसे को बड़ी जरुरत मानती है, लेकिन साथ ही यह भी मानती है की मूल्यों के बिना क्या जीना| एक तरफ उसने लीविस की जींस को अपनाया है तो दूसरी तरफ आत्मनिर्भरता उसका पहला ध्येय है|
किसी बने बनाये रास्ते पर चलना हमेशा से आसान रहा है , लेकिन नया रास्ता बनाने में मेहनत है और जोखिम भी | लाइफ में एड़वेंचर और थ्रिल की मुरीद युवा पीढ़ी ने चुनौती को स्वीकार किया है और मूल्यों को आज की जरुरत के हिसाब से ढल रही है| रिश्ते में सच , दोस्ती में समर्पण और काम की ईमानदारी | उनसे अंधे होकर पुराने मूल्यों को ही पकडे नही रखा है, बल्कि नए मूल्य गढ़े है | दया को ही ले लीजिये, स्टुडेंट है| चाहती है हर सख्स अपने पैरो पर खड़ा हो| समय निकालकर भिखारियों को पढ़ाती है| कहाँ से आया यह जज्बा | बताती है,'पापा हमेशा भिखारियों को भीख देकर उनकी मदद किया करते थे | यह तरीका मुझे पसंद नहीं आया | अच्छा हो की उन्हें अपनी रोटी खुद कमाना सिखाया जाये | तो मई अपनी तरफ से छोटी सी कोशिश कर रही हूँ| मैं उन्हें भिक्षुक की श्रेणी से बाहर निकालकर मजदूर बनाना चाहती हूँ | यह पूछना बेईमानी है की दया कहाँ की हैं, क्योंकी ऐसी लड़कियां और लड़के आपको चंडीगढ़, डेल्ही, लखनऊ, मुंबई, देहरादून कही भी मिल सकती है| हाँ दया लखनऊ की है | युवाओं का यह तर्क दमदार है की जिस तरह भाषा के साथ दूसरी भाषाओं का समागम उसे समृद्ध ही बनाता है, वही सिद्धांत मूल्यों के साथ भी काम करता है| बदलते ज़माने के साथ नवीनता जरुरी है, लेकिन नए के स्वागत में पुराने को सिरे से बिसराना खतरनाक भी हो सकता है, मार्केटिंग मनेजर सत्येन्द्र कुमार पाण्डेय कहते है कि-, ' अनुभव के साथ कही गयी बात और बिना किसी तथ्य के कही गयी बात में जमीं आसमान का अंतर होता है | जबकि मेरा ( राकेश कुमार कसौधन ) का मानना है की, ' बुजुर्गो के खयालात अपनी जगह सही है और यूथ की अपनी जगह | समय, स्थिति और परिस्थिति के मुताबिक हमें सिद्धांतो को मोड़ना चाहिए| ऐसे सिद्धांतो का क्या करना, जो छोटे बड़े की क़द्र करना भुला दे|'
चालढाल, लिबास, बोलचाल से माँड दिखते ये युवा दर असल उस हिंदुस्तान कि इबादत लिख रहे है जिसकी कल्पना हमारे महापुरुषों ने कि थी | किसी को नुक्सान पंहुचा कर आगे बढ़ना सही नही है , यह युवा पीढ़ी कि सोच है| वह दुसरे कि लकीर छोटी करने में नहीं , बल्कि बड़ी लकीर खीचने में यकीन करते है| भ्रष्टाचार के पंख फैलाते इस युग में भी ईमानदारी के पछ में वोट देना आज क यूथ के इसी आचरण कि गवाही है | ईमानदारी, जो सहजता से जीवन में उतर आई है, चाहे उसकी पब्लिक लाइफ हो या पर्सनल लाइफ |
भले सच आज किसी चौराहे के कोने पर दुबका सा लगता हो और झूठ चमकदार गाड़ी में फर्राटे से गुजरता , लेकिन हमारे युवा नहीं मानते कि जीवन में सच का कोई बिकल्प हो सकता है | देश के 64 फीसदी युवा दिल से कहते है कि हाँ , जीवन में ईमानदारी से रहा जा सकता है और उनकी इस बात में ईमानदारी को सहजता से उतरने कि ललक है | सच तो यह है आज से पहले के समाज में प्रतिभा कि इतनी पुच कभी नहीं रही | पहले पैसे देकर नौकरियां लगवाई जाती थी, हजारो लाखो में घूस देनी पड़ती थी , पर आज छोटे शहरो के मामूली परिवारों से आये लड़के- लड़कियां भी अपनी योग्यता के मुताबिक बीस- तीस हजार क़ी नौकरी आसानी से पा जाते है |
लाइफ अगर स्टाइल से जीनी है तो मनी चाहिए और भरपूर चाहिए | पैसों क़ी खनक युवाओं को भी लुभाती है | सिर्फ 41 % युवा ब्लैकमनी को गलत मानते है और 59 % का कहना है क़ी सब चलता है | लेकिन सब चलता है के पक्ष में युवाओं का रुझान यह नही दर्शाता क़ी वे कालाधन कमाने क़ी होड़ में है और घूसखोरी तथा भ्रष्टाचार के समर्थन में खड़े है | दरअसल युवा किसी कलि कमाई क़ी हिमायत नहीं कर रहे, बल्कि अपनी सेलरीड इनकम के अलावा इजीमनी कमाना उन्हें बुरा नहीं लगता | इजीमनी यानि शेयर निबेश में आदि| यह कोई चोरी नहीं है , बल्कि पैसा कमाने का जायज तरीका है| हाँ , इसमें मेहनत नहीं , बल्कि अपने पैसो का निवेश करना पड़ता है  और सावधान रहना पड़ता है| एड डिजाइनर जैसे पेसे में रचे- बसे गुलजार क लिए इतना ही काफी है क़ी वह ईमानदारी से पैसा कमा रहा है ,'मेरे नीचे और मेरे ऊपर क्या हो रहा है , यह मेरा सर दर्द नही है |' दरअसल यह पीढ़ी पैसे क़ी भूख से इनकार नही करती , मगर उसे जायज तरीके से कमाने का फन भी जानती है | लखनऊ KGMC क़ी MBBS  मेडिकल स्टूडेंट डॉ अन्सुम गुप्ता क़ी यह बात कोई बुजुर्ग सुने तो उसका लोहा मान ले, "जिस तरह जिन्दगी में खाने पीने क़ी जरूरत है, उसी तरह मूल्यों क़ी भी जरूरत है | अगर ये मूल्य न हों तो जीवन अर्थहीन हो जायेगा |                    

Monday, January 10, 2011

स्वामी विवेकानंद

मेरी राय में  सर्वसाधारण जनता की उपेक्षा  ही एक बड़ा राष्ट्रीय  पाप है और वही एक कारण है जिससे हमारा पतन हुआ है I  कितना भी राजकारण उस समय तक उपयोगी नहीं हो सकता जब तक की भारतीय जनता फिर से अच्छी  तरह सुशिक्षित  न हो जाये, उसे अच्छा भोजन फिर न प्राप्त हो और उसकी अच्छी  देखभाल न हो |
शिक्षा, शिक्षा, केवल शिक्षा! यूरोप के अनेक शहरों का भ्रमण करते समय वहां के गरीबों को भी आराम और शिक्षा का जब मैंने निरीक्षण किया, तो उसने मेरे देश के गरीबों की स्थिति की याद जगा दी और मेरी आँखों से आंसू  गिर पड़े | इस अंतर का क्या कारण है ? उत्तर मिला, 'शिक्षा' | शिक्षा क द्वारा उनमे आत्मविश्वास उत्पन्न  हुआ और आत्मविश्वास के द्वारा मूल स्वाभाविक  ब्रह्मभाव उनमे जागृत हो रहा है| 
उपहास, विरोध और फिर स्वीकृति - प्रत्येक कार्य को इन तीन अवस्थाओ में से गुजरना पड़ता है| जो ब्यक्ति अपने समय से आगे की बात  सोचता है, उसके सम्बन्ध में  लोगो की गलत धारणा होना निश्चित है |
अपने भाइयों का नेतृत्व करने का नहीं, वरन उनकी सेवा करने का प्रयतन करो | नेता बनने की इस क्रूर उन्मतता ने बड़े - बड़े ज़हाजो को इस जीवनरूपी समुन्द्र में डुबो दिया है|
ऊँचे स्थान पर खड़े होकर और हाथ में कुछ पैसे लेकर यह न कहो - 'ऐ भिखारी आओ यह लो'| परन्तु इस बात के लिए उपकार मानो की तुम्हारे सामने वह गरीब है, जिसे दान देकर तुम अपने आप की सहायता कर सकते हो| पाने वाले का सौभाग्य नहीं, पर वास्तव में देने वाले का सौभाग्य है| उसका आभार मनो की उसने तुम्हे  संसार में  अपनी उदारता और दया प्रकट करने का अवसर दिया और इस प्रकार तुम शुद्ध और पूर्ण बन सके|                

Ek pagal pagal si ladki…

Ek pagal pagal si ladki…
dil toornay se darti thi…….
har pal har lamha khud se woh jhagarti thi…
ansoo kiun aye kisi ankh
main mujrim khud ko samujhti thi…

ghuut ghuut k jeeti rehti thi…
har sans ulajhti rehti thi…
soo baar kaha aaay nadan larki..!!!
dunya ko dekhna choor day…
khud se ulajhna choor day…
pal pal bikherna choor day..
yahan HAASSASS DIl to koi nahi….
yahan NAZUKi say kaam na lay…
yahan pather banna parta hai…
yahan rehumdilli say kaam na lay…
soo barr kaha par kaisay nasamjhi…. !!!
dunya ko sub samujhti thi…
phir wohi hoa jo hona tha…..
dil toota uska jiska ussay roona tha…
BHAROSAY ki deewar girri …
SARD LEHJI haar baar mili….
phir simat gaye apni zaat main…
tamaam dukhon ko samaitay anchal main…
ankhon main jazbaat nahi..
pahlay say halaaat nahi…
Farq srif itna hoa…
khud apni zaaat ko TOOR dia…
tanhayeyoun se rishta jorr dia..
phir tanha tanha rehni lagi…
phir khud ko PATHEr kahnay lagi…
WOH IK PAGAL PAGAL SI LARKI….
JO DIL TOORNAY SE DARTI THI ……!!!!!! !!!!

हाथों की रेखाएं

मेरे हाथों की रेखाएं,
तुम्हारे होने की गवाही देती हैं
जैसे मेरी मस्तिष्क रेखा....
मेरी मस्तिष्क रेखा,
तुम्हारे विचार मात्र से,
अनशन पे बैठ जाती है.
और मेरी जीवन रेखा
वो तुम्हारे घर की तरफ मुड़ी हुई है.
मेरी हृदय रेखा
तुम्हारे रहते तो जि़न्दा हैं,
पर तुम्हारे जाते ही धड़कना
बंद कर देती हैं.
बाक़ी जो इधर उधर बिखरी रेखाएं हैं
उनमें कभी मुझे
तुम्हारी आंखें नजऱ आती हैं
तो कभी तुम्हारी तिरछी नाक़.
पंडित मेरे हाथों में,
कभी अपना मनोरंजन तो कभी
अपनी कमाई खोजते हैं,
क्योंकि....
मेरे हाथों की रेखाएं
मेरा भविष्य नहीं बताती
वो तुम्हारा चेहरा बनाती हैं,
पर तुम्हें पाने की भाग्य रेखा
मेरे हाथों में नहीं है





Mr.Rakesh Kumar Kasaudhan