कौन आज़ाद है?

Who is Aazad? We all are Aazad every living being is Aazad at least that’s how god intended us to be or as I would like to believe.Aazad means FREE (referring to freedom), freedom of thought, expression etc. as stated in Indian Constitution and similarly stated as LIBERTY in U.S and other countries. The question is, are we really Aazad? Or is this just another farce to make us happy?Does freedom mean the democracy that we celebrate on 26th of Jan every year or the 15th of Aug every year in India?It’s all chaotic no one exactly knows how to refer themselves to freedom and democracy. No one has ever bothered to know and no one has ever bothered to explain. It’s all there in those big endless volumes in the library. But all that really needed is few basic facts to live our normal day to day life. Now I intend to search for the answer collaboratively. From here on I refer my self to Aazad by name and will search for the real meaning of it. Come join me lets come together and search for the truth.I use BHARATAAZAD.BLOGSPOT.COM as the channel to reach out as and Indian to the Indians. I welcome those from other countries to contribute to our cause.Apart this site has lots of Inspirational Stories , Quotes, Events and Should Know Facts to learn from.

Saturday, September 24, 2011

32 रूपये में कैसे जियेंगे मनमोहन जी?


देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अध्यक्षता के अंतर्गत आधारभूत संरचना और मानव विकास के लिए पुख्ता योजनाये बनाने का दावा करने वाली केन्द्र सरकार की संस्था योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय को बताया है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता है. गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है.


अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष हलफनामे के तौर पेश की है. इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्‍ताक्षर किए हैं. योजना आयोग ने गरीबी रेखा पर नया मापदंड सुझाते हुए कहा है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नै में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता.

योजना आयोग के इस हास्यास्पद परिभाषा पर हो-हल्ला मचना शुरू हो चुका है. रिपोर्ट के मुताबिक, एक दिन में एक आदमी प्रति दिन अगर 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्‍जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्‍य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे रसोई गैस व अन्य ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्‍वस्‍थ्‍य जीवन यापन कर सकता है. साथ में एक व्‍यक्ति अगर 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा. योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवा पर 39.70 रुपये प्रति महीने खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा जायेगा. यदि आप 61.30 रुपये महीनेवार, 9.6 रुपये चप्पल और 28.80 रुपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं कहे जा सकते.

योजना आयोग ने गरीबी की इस नई परिभाषा को तय करते समय 2010-11 के इंडस्ट्रियल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमिटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का लेखा-जोखा दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है. हालांकि, रिपोर्ट में अंत में कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी. ज्ञात हो कि  उच्चतम न्यायालय ने गत 29 मार्च को 2004 के लिए निर्धारित मानदंडों के आधार पर वर्ष 2011 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों का निर्धारण करने पर मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था. कोर्ट ने योजना आयोग की सिफारिशों के आधार पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की आबादी 36 प्रतिशत होने के सरकारी दावों पर सवाल उठाते हुए सरकार से इसका विवरण माँगा था. न्यायाधीशों का कहना था कि 2004 में दिहाड़ी मजदूरी 12 रु. और 17 रु. थी, लेकिन क्या आज यह वास्तविकता है. इतने पैसे में आज क्या होता है? न्यायाधीशों का यह भी कहना था कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन में भी साल में कम से कम दो बार बदलाव होता है, लेकिन गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने में मानदंडों में सात साल में कोई बदलाव नहीं करना आश्चर्य पैदा करने वाला है.

आज देश का गरीब आदमी अपने ही नीतिनिर्धारकों द्वारा तय किये गए 'नव आर्थिक उदारीकरण' की मार झेल रहा है. उसकी जमीन, पानी और रोजी-रोटी राज्य द्वारा कब्जाई जा रही हैं ताकि सब कुछ बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और धन्ना-सेठों की खनन, सेज और दूसरे बड़े-बड़े प्रोजेक्टों, आदि के लिए दी जा सकें. जहाँ एक ओर पिछले 10 सालों में देश के कारपोरेट घरानों को 22 लाख करोड रूपये ( टेक्स आदि में छूट के माध्यम से) दे दिया गया वहीं देश के गरीब आदमी को सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी को खत्म करने की सोची-समझी रणनीति के तहत, योजना आयोग, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में काम कर रहा है. अब ऐसे में उस उच्चतम न्यायालय को उन गरीबों की मदद के लिए आगे आना चाहिए, जिनके अधिकार छीनने की मंसा से योजना आयोग उच्चतम न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है. कोई मनमोहन, मोंटेक अर्थशास्त्रीद्वय, की मंडली से कोई यह पूछे की आपकी झक्क सफेदी जो कि आप सभी के पहनावे में झलकती है और क्रीच टूट जाने पर तत्काल बदल दी जाती है ( दिन में 3 बार) कितना खर्च आता है ? ( संभवतः 23 रूपये से कई गुना ज्यादा होगा) तो आपने यह कैसे मान लिया कि देश का आम आदमी केवल 32 रूपये रोज गुजारा कर लेगा ?

जब देश में वैश्वीकरण की नीतिया लागू की जा रहीं थी उस समय तमाम बुद्धिजीवियों नें जो आशंका व्यक्त की थी कि अगर वैश्वीकरण की नीतियों पर चल कर उदारीकरण और ग्लोबलीकरण को अपनाया गया तो अधिक से अधिक लोग हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे. नतीजतन, एक ऐसी परिस्थिति निर्मित होगी जिसमें बहुत ही थोड़े से लोग अपना अस्तित्व बचा पाएंगे. गरीबों को यह चुनाव करना होगा कि वे फांसी लगाकर मरेंगे या कीटनाशक पीकर अथवा सरकारी सुरक्षाबलों के बंदूक की गोली से. क्या स्थितियां उससे अलग नजर आ रहीं हैं ? राष्ट्रीय आर्थिक संप्रभुता की अधोगति तथा आर्थिक व राजनीतिक प्रक्रिया से दूर रखे जाने की प्रवृत्ति के कारण कई युवा गुमराह होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मजबूरन आतंकवाद और हिंसा तथा अन्य गैरकानूनी रास्ता अपनाने को बाध्य हुए हैं. इन स्थितियों के मद्देनजर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि नक्सलवाद और कुछ नहीं, बल्कि अस्तित्व के संघर्ष में गरीबों के जवाबी प्रतिरोध का पर्याय मात्र है. सवाल यह है कि आखिर योजना आयोग के योजनाकारों के समझ में यह क्यों नहीं आता कि जिस देश में महंगाई दर 10 फीसदी की दर से बढ़ रही हो वहां का आम आदमी 32 रूपये में कैसे गुजारा कर सकता है.

वह वर्ल्ड बैंक जिसके बारे में कहा जाता है कि वह आम आदमी के बारे में नहीं सोचता वह केवल अपने निवेशकों के बारे में सोचता है नें भी गरीबी रेखा के ऊपर की न्यूनतम आय 2 डॉलर यानि 96 रूपये तय किया है और हमारे नीति निर्धारकों की नजर में प्रतिदिन 32 रूपये की आय अर्जित करने वाले गरीबी रेख के निचे नहीं हैं. वैसे तो यूपीए 2 का घोषित लक्ष्य देश के आम आदमी और खासकर देश की गरीब आबादी के लिए ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर उनका जीवन स्तर सुधारना था, लेकिन अब वही यूपीए2 की सरकार देश के चंद पूंजीपतियों व निजी कंपनियों का हितसाधक बन गई है. इसी के मद्देनजर गरीबी निर्धारण के भ्रामक आंकड़े उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया है. कुल मिलाकर उच्चतम न्यायालय को हलफनामे के रूप में दी गई योजना आयोग की रिपोट से यह स्पष्ट होता है कि मौजूदा दौर में बट्टा भारी हो गया है और आदमी हल्का हो गया है. सरकार की इन्ही नीति निर्धारण के मद्देनजर चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार, और आवास की बातें करना बेमानी है देश की गरीब जनता के सामने तो अब दो जून की रोटी का सवाल मुंह बाए खड़ा हो गया है.



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1 comment:

  1. सामयिक और सार्थक प्रस्तुति, आभार.

    कृपया मेरे ब्लॉग प् भी पधारने का कष्ट करें.

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